तुसली दास जी के दोहे हिंदी अर्थ सहित

Sant Tulsidas Ke Dohe In Hindi With Meaning – तुसलीदास जी के दोहे हिंदी अर्थ सहित

 Sant Tulsidas Ke Dohe In Hindi – रामचारितमानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास की गिनती महान कवियों में होती है ! उन्होंने अनेक महाकाव्य, ग्रंथो की रचना की है ! अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने समाज और देश को एक नईं दिशा दी है  ! तुलसीदास जी के दोहे आज भी बहुत प्रचलित और मशहूर है ! उनके दोहे आज भी लोगो के अंदर नई ऊर्जा और ज्ञान भर रहे है ! तुलसीदास जी के कुछ प्रसिद्ध दोहे   Sant Tulsidas Ke Dohe In Hindi With Meaning हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे है ! उम्मीद करता हु यह आपको जरूर पसंद आएंगे !

Sant Tulsidas Ke Dohe In Hindi With Meaning – 

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1.

देत लेत मन संक न धरई ! बल अनुमान सदा हित करई !

विपति काल कर सतगुन नेहा ! श्रुति कह संत मित्र गुन एहा !!

अर्थ : गोस्वामी तुलसीदास जी कहते है कि मित्रो को लेन – देन करने में शंका नहीं करनी चाहिए ! अपनी शक्ति के अनुसार सदा एक – दूसरे की भलाई करे ! वैद के अनुसार एक अच्छा मित्र संकट के समय सौ गुणा स्नेह प्रेम करता है ! एक अच्छे मित्र का यही गुण होता है !


2.

आगे कह मृदु वचन बनाई ! पाछे अनहित मन कुटिलाई !

जाकर चित अहिगत सम भाई ! अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई !!

अर्थ : संत तुलसीदास जी कहते है कि व्यक्ति सामने से तो मीठा बोलता है और पीठ पीछे बुराई करता है ! तथा जिसका मन साप की चाल के समान टेढ़ा है ऐसे मित्र को त्यागने में ही भलाई है !


3.

भय लोग सब मोहबस लोभ ग्रसे सुभ कर्म !

सुनु हरिजान ज्ञान निधि कहउ कछुक कलिधर्म !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि संसार में सब लोग मोह माया के अधीन रहते है ! अच्छे कर्मो को लोभ ने नियंत्रित कर लिया है ! भगवान् के भक्तो को कलियुग के धर्मो को जानना चाहिए !


4.

जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ !

मन क्रम वचन लवार तेइ वक्ता कलिकाल महुँ !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जो व्यक्ति अपने कर्मो से दुसरो का अहित करते है उन्ही का गौरव होता है और आजकल वे लोग ही इज्जत पाते है ! जो मन , वचन और क्रम से केवल झूठ बकते है वे ही कलियुग में वक्ता माने जाते है !


5.

सुख हरसहि जड़ दुःख विलखाही ! दोउ सम धीर धरहि मन माहि !

धीरज धरहु विवेक विचारी ! छाड़िअ सोच सकल हितकारी !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि मुर्ख व्यक्ति सुख के समय में खुश होता है और दुःख के समय में रोता है ! लेकिन धीर व्यक्ति दोनों समय में समान रहते है ! विवेकी व्यक्ति धीरज रखकर शौक का परित्याग करते है !


6.

सोचिअ गृही जो मोहवस करइ करम पथ त्याग !

सोचिअ जती प्रपंच रत विगत विवेक विराग !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि उस गृहस्थ जीवन का भी सोच करना चाहिए जिसने मोहवश अपने कर्म को छोड़ दिया है ! उस सन्यासी का भी दुःख करना चाहिए जो सांसारिक मोह माया में फंसकर ज्ञानं वैराग्य से विरक्त हो गया है !


7.

रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहू !

अजहुँ देत दुःख रवि ससिहि सिर अवसेशित राहु !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि कभी भी बुद्धिमान शत्रु को अकेला देख कर उसे छोटा नहीं मानना चाहिए ! क्योंकि राहु का केवल सिर बच गया था परन्तु वह आजतक सूर्य और चन्द्रमा को ग्रसित कर दुःख देता है !


8.

सुख सम्पति सुत सेन सहाई ! जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई !

नित नूतन सब बाढ़त जाइ ! जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि सेना , मददगार , विजय , प्रताप , बुद्धि , शक्ति  प्रशंसा जैसे – जैसे रोज बढ़ते है , वैसे – वैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढ़ता है !


9.

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहइ ! सुरसरि कोउ अपुनीत न कहइ !

समरथ कहुँ नहि दोश गोसाई ! रवि पावक सुरसरि की नाइ !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि गंगा नदी में पवित्र और अपवित्र सब प्रकार का जल बहता है परन्तु कोई भी गंगाजी को अपवित्र नहीं कहता ! इसी प्रकार सूर्य आग और गंगा की तरह समर्थ व्यक्ति को कोई दोश नहीं लगता है !


10.

 तेहि ते कहहि संत श्रुति  टेरे !

परम अंकिचन प्रिय हरि केरे !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि अत्यधिक घमंड रहित माया मोह और मान प्रतिष्ठा को त्याग देने वाले ही ईश्वर को अत्यंत प्रिय होते है !


11.

लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल !

जेहि बस जन अनुचित करहि चरहिं विस्व प्रतिकूल !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि व्यक्ति को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए क्योंकि क्रोध ही सब पापो की जड़ होती है ! क्रोध में मनुष्य ऐसे काम कर लेता है जो की अनुचित है और जिससे लोगो का अहित होता है !


12.

सेवक सुमिरत नामु सप्रीती ! बिनु श्रम प्रवल मोह दलु जीती !

फिरत स्नेह मगन सुख अपने ! नाम प्रसाद सोच नहीं सपने !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि सच्चा भक्त प्रेमपूर्वक ईश्वर भक्ति से बिना परिश्रम मोह माया की प्रवल सेना को जीत लेता है ! और प्रभु प्रेम में मग्न होकर सुखी रहता है ! नाम के फल से उन्हें सपने में भी कोई चिंता नहीं होती !


13.

प्रभु समरथ सर्वग्य सिव सकल कला गुण धाम !

जोग ग्यान वैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि ईश्वर सर्वशक्तिमान और कल्याणदायी है ! वह सभी कलाओ और गुणों के ज्ञाता है !  वे योग , ज्ञान और वैराग्य के भंडार है ! जो मनुष्य प्रभु की शरण में जाकर उनके नाम को सुमिरन करते है उनके लिए वह कल्पतरु है !


14.

बातुल भूत बिवस मतवारे ! ते नहीं बोलहि बचन विचारे !

जिन्ह कृत महामोह मद पाना ! तिन्ह कर कहा करिअ नहि काना !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जो मनुष्य पागल , उन्मादी और भुत के वशीभूत मतवाले है और हमेशा नशे में चूर रहते है वे कभी सोच – विचार कर नहीं बोलते है ! जिस मनुष्य ने मोह माया की मदिरा पी ली है उसकी बातो पर कभी ध्यान नहीं देना चाहिए !


15.

धरनि धरहि मन धीर कह विरंचि हरि पद सुमिरु !

जानत जन की पीर प्रभु भंजिहि दारुन विपति !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि हे मानव पृथ्वी पर धीरज रखकर भगवान् के नाम का स्मरण करो ! प्रभु सभी लोगो की पीड़ा को जानते है और उनके जीवन में आयी कष्ट और विपदा का नाश करते है !


16.

बिप्र धेनु सुर संत हित लिन्ह मनुज अवतार !

निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन जो पार !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि ब्राह्मण , गाय और संतो की रक्षा हेतु भगवान ने आदमी के रूप में अवतार लिया है ! वे समस्त माया और इन्द्रियों से परे है ! उनका शरीर उन्ही की इच्छा से बना है !


17.

जेहि के जेहि पर सत्य सनेहु !

सो तेहि मूरति तिन्ह देखि तैसी !!

अर्थ : तुलसीदास जी  कहते है कि जिन लोगो की जैसी भावना होती है उसी भावना के अनुरूप उन्हें मिलता है – इसमें कुछ भी संदेह नहीं है !


18.

ता कहूं प्रभु कछु अगम नहि जा पर तुम्ह अनुकूल !

तव प्रभाव बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जिस मनुष्य पर ईश्वर की कृपा हो उसके लिए इस संसार में कुछ भी कठिन नहीं है ! ईश्वर की कृपा से रुई भी बड़वानल को जला सकती है ! असंभव भी संभव हो जाता है !


19.

बन्दउ गुरु पद पदुम परागा !  सुरुचि सुवाय सरस अनुरागा !

अमिय मूरिमय चूरन चारु ! समन सकल भव रुज परिवारु !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि गुरु के पैरो की धूल  सुन्दर स्वाद और सुगंध वाले अनुराग रस से पूर्ण है ! वह संजीवनी के औषधीय चूरन के समान है ! यह संसार के सभी रोगो की दवा है ! मै उस चरण रूपी धूल की वंदना करता हूँ !


20.

श्री गुरु पद नख मनि गन जोती ! सुमिरत दिब्य  दृष्टि हिय होती !

दलन मोह तम सो सप्रकाशु ! बड़े भाग्य उर आबई जासु !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि श्री गुरु के पैरो के नाख़ून से मणि का प्रकाश और स्मरण से ह्रदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है ! वह अज्ञान का नाश करता है ! वह मनुष्य बहुत भाग्यवान होता है जिसके ह्रदय में यह ज्ञान होता है !


21.

हरश विशाद ज्ञान अज्ञाना !

जीव धर्म अह मिति अभिमाना !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि हर्ष , शोक , ज्ञान , अज्ञान अहंकार और अभिमान ये सब सांसारिक जीव के सहज धर्म है !


22.

तुलसी जसि भवितव्यता तैसी मिलई सहाई !

आपुनु आवइ ताहि पहि ताहि तहाँ ले जाइ !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जैसा हमारा भाव होता है हमें वैसी ही सहायता मिलती है ! या तो वह सहायता स्वयं अपने पास आ जाती है या वह उस व्यक्ति को वहां ले जाती है !


23.

जदपि मित्र प्रभु पितु गुरु गेहा ! जाइअ बिनु बोलेहु न संदेहा !

तदपि  बिरोध मान जह कोई ! तहाँ गए कल्यान न होइ !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि बिना किसी संकोच के मनुष्य को मित्र , प्रभु , पिता और गुरु के घर बिना बुलाने पर भी जाना चाहिए ! परन्तु जहाँ पर जाने से विरोध हो वहां जाना उचित नहीं है !


24.

गुरु के वचन प्रतीति न जेहि !

सपनेहु सुगम न सुख सिधि तेहि !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जिस मनुष्य को गुरु के वचनो पर भरोसा नहीं है उसे कभी भी सुख और सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती है !


25.

जे गुरु चरन रेनू सिर धरहि !

ते जनु सकल विभव बस करही !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जो मनुष्य गुरु के चरणों की धूल को मस्तक पर धारण करते है वे संसार के सभी ऐश्वर्य को अपने अधीन कर लेते है !


26.

सहज सुहृद गुर स्वामी सिख जो न करई सिर मानि !

सी पछिताइ अघाइ उर अवसि होइ हित हानि !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जो मनुष्य गुरु और स्वामी की शिक्षा को मन से नहीं मानता है उसे बाद में हृदय से पछताना पड़ता है और उसके हित का जरूर नुकसान होता है !


27.

मूक होइ बाचाल  पंगु चढ़ई गिरिवर गहन !

जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलि मल दहन !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि ईश्वर की कृपा होने पर गूंगा भी अत्यधिक बोलने वाला और लंगड़ा भी ऊचे दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने लायक हो जाता है ! ईश्वर कलियुग के समस्त पापो को नष्ट करने वाला परम दयावान है !


28.

एक अनीह अरूप अनामा ! अज सचिदानंद पर धामा !

ब्यापक विश्वरूप भगवाना ! तेहि धरि देह चरित कृत नाना !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि ईश्वर एक है ! उनका कोई रूप या नाम नहीं है !  वह अजन्मा और परमानन्द परमधाम है ! वे सर्वव्यापी विश्वरूप है ! उन्होंने अनेक शारीरिक रूप धारण किये है और अनेक लीलाये की है !


29.

जपहि नामु जन आरत भारी ! मिटहि कुसंकट होहि सुखारी !

राम भगत जग चारि प्रकारा ! सुकृति चारिउ अनघ उदारा !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जब कोई व्यक्ति संकट में ईश्वर का नाम जपते है तो उनके समस्त संकट दूर हो जाते है और वे सुखी हो जाते है !  संसार में चार तरह के अर्थाथी , आर्त , जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त है और वे सभी भक्त पुण्य के भागी होते है !


30.

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन !

नाम सुप्रेम पियूश हृद तिन्हहु किए मन मीन !!

अर्थ : तुलसीदास जी कहते है कि जो मनुष्य सभी इछाओ को छोड़कर राम की भक्ति में लीन रहता है और एक क्षण भी अलग नहीं रहना चाहता , वही प्रभु का सच्चा भक्त होता है !


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